Urdu Shayari: ये ज़िंदगी कुछ भी हो मगर अपने लिए तो,कुछ भी नहीं बच्चों की शरारत के अलावा
'ताबिश'
ताबिश जो गुज़रती ही नहीं शाम की हद से,सोचें तो वहीं रात सहर-ख़ेज़ बहुत है
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इंतिज़ार
पस-ए-ग़ुबार भी उड़ता ग़ुबार अपना था,तिरे बहाने हमें इंतिज़ार अपना था
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इश्क़
ये तो अब इश्क़ में जी लगने लगा है कुछ कुछ,इस तरफ़ पहले-पहल घेर के लाया गया मैं
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झीलें
उन आँखों में कूदने वालो तुम को इतना ध्यान रहे, वो झीलें पायाब हैं लेकिन उन की तह पथरीली है
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लफ़्ज़
वक़्त लफ़्ज़ों से बनाई हुई चादर जैसा,ओढ़ लेता हूँ तो सब ख़्वाब हुनर लगता है
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शहर
मैं उसे देख के लौटा हूँ तो क्या देखता हूँ,शहर का शहर मुझे देखने आया हुआ है
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इंतिज़ार
न ख़्वाब ही से जगाया न इंतिज़ार किया,हम इस दफ़अ भी चले आए चूम कर उस को
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