सुरों के जादूगर मोहम्मद रफ़ी की अनसुनी कहानी
मखमली आवाज़
बॉलीवुड के सुनहरे दौर को अपनी मखमली आवाज़ से सजाने वाले मोहम्मद रफ़ी की यादें आज भी लाखों दिलों में गूंजती हैं. उनकी गायकी ने रोमांस, भावुकता और जोश को नई ऊंचाइयां दीं.
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रोचक और प्रेरणादायक बातें
24 दिसंबर को मनाई जा रही मोहम्मद रफ़ी की 101वीं जयंती पर, आइए जानते हैं इस महान गायक की जिंदगी से जुड़ी कुछ रोचक और प्रेरणादायक बातें, जो उनकी सादगी और प्रतिभा को उजागर करती हैं.
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मासूमियत को दर्शाता
रफ़ी साहब अपने परिवार के छह भाई-बहनों में दूसरे सबसे बड़े थे. बचपन में उनका प्यारा निकनेम फीको था, जो उनकी मासूमियत को दर्शाता था.
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प्लेबैक सिंगिंग की शुरुआत
संगीत की दुनिया में उनका सफर 1941 से शुरू हुआ, जब लाहौर में उन्होंने पंजाबी फिल्म गुल बलोच (1944 में रिलीज़ हुई) के लिए ज़ीनत बेगम के साथ डुएट गाना सोनिये नी, हीरिये नी गाकर प्लेबैक सिंगिंग की शुरुआत की.
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हिंदी सिनेमा में पहला कदम
हिंदी सिनेमा में उनका पहला कदम 1945 में फिल्म गांव की गोरी से पड़ा, जहां उन्होंने गाया अजी दिल हो काबू में तो दिलदार की ऐसी तैसी. इस गाने ने उनकी बहुमुखी प्रतिभा की झलक दिखाई.
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योगदान की अमर निशानी
मुंबई के बांद्रा इलाके में उनकी याद में पद्म श्री मोहम्मद रफ़ी चौक नामित किया गया है, जो उनके योगदान की अमर निशानी है.
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मौत से महज कुछ घंटे पहले रिकॉर्ड
एक भावुक किस्सा उनके आखिरी दिनों का है. संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के लिए उनका अंतिम गाना शाम फिर क्यों उदास है दोस्त, तू कहीं आस-पास है दोस्त था, जिसे उन्होंने अपनी मौत से महज कुछ घंटे पहले रिकॉर्ड किया.
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जिंदगी की आखिरी धुन
यह गाना उनकी जिंदगी की आखिरी धुन बन गया. मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ ने न सिर्फ फिल्मों को अमर बनाया, बल्कि संगीत प्रेमियों के दिलों में हमेशा के लिए जगह बना ली.
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