Mirza Ghalib: इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के
मोहब्बत
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
छुपाना
तेरी बातों को छुपाना नहीं आता मुझ से,
तू ने ख़ुश्बू मिरे लहजे में बसा रक्खी है
जन्नत की हक़ीक़त
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है
ख़्वाहिशें
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
क़िस्मत
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
लहू
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
फ़ना
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
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