अब हर्फ़-ए-तमन्ना को समाअत न मिलेगी.. पढ़ें पीरज़ादा क़ासिम के शेर..
आवाज़ में आवाज़ मिलाते ही
आवाज़ में आवाज़ मिलाते ही रहे हम, रोती ही रही रूह सो गाते ही रहे हम
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ख़्वाब ए तमन्ना की ताबीर
उस ख़्वाब ए तमन्ना की ताबीर न थी कोई, बस ख़्वाब ए तमन्ना था सो मैंने नहीं देखा
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रुसवाई का मेला था
रुसवाई का मेला था सो मैंने नहीं देखा, अपना ही तमाशा था सो मैंने नहीं देखा
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सीरत पे सारी गूफ्तगू
मगर जब आपकी सीरत पे सारी गूफ्तगू हो ले, तो ये भी याद रखिएगा अभी तक हम नहीं बोले
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लहू की बहार
ये लोग भूल गए क्या मेरी लहू की बहार, जो कह रहें हैं मेरी दास्तां में कुछ भी नहीं
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सिर्फ जलना ही नहीं
सिर्फ जलना ही नहीं हमको भड़कना भी तो है, इश्क़ की आग को लाजिम है हवा दी जाए
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उसकी ख़्वाहिश है
उसकी ख़्वाहिश है कि अब लोग न रोएं न हंसें, बेहिसी वक़्त की आवाज़ बना दी जाए
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