मय-ख़ाना-ए-यूरोप के दस्तूर निराले हैं...पढ़ें अल्लामा इक़बाल के शेर...
ज़माने को ख़ूब पहचाना
मिरे जुनूँ ने ज़माने को ख़ूब पहचाना, वो पैरहन मुझे बख़्शा कि पारा पारा नहीं
निगह बेबाक
यही ज़माना-ए-हाज़िर की काएनात है क्या, दिमाग़ रौशन ओ दिल तीरा ओ निगह बेबाक
इंकार की जुरअत हुई
उसे सुब्ह-ए-अज़ल इंकार की जुरअत हुई क्यूँकर, मुझे मालूम क्या वो राज़-दाँ तेरा है या मेरा
हरम और बना दो
मैं ना-ख़ुश-ओ-बे-ज़ार हूँ मरमर की सिलों से, मेरे लिए मिट्टी का हरम और बना दो
मेरी इंतिहा क्या है
ख़िर्द-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है, कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है
कार-ए-बे-बुनियाद
ऋषी के फ़ाक़ों से टूटा न बरहमन का तिलिस्म, असा न हो तो कलीमी है कार-ए-बे-बुनियाद
एक दाने के लिए
पास था नाकामी-ए-सय्याद का ऐ हम-सफ़ीर, वर्ना मैं और उड़ के आता एक दाने के लिए
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