बदन का सारा लहू खिंच के आ गया रुख़ पर.. पढ़ें जफ़र इकबाल के शेर...
रात भर पैग़ाम था
उस को आना था कि वो मुझ को बुलाता था कहीं, रात भर बारिश थी उस का रात भर पैग़ाम था
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मारा मुझे तन्हा कर के
मुझ से छुड़वाए मिरे सारे उसूल उस ने ज़फ़र, कितना चालाक था मारा मुझे तन्हा कर के
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किसी ने गले लगाया था
बस एक बार किसी ने गले लगाया था, फिर उस के बाद न मैं था न मेरा साया था
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हँसी बहुत आई
वहाँ मक़ाम तो रोने का था मगर ऐ दोस्त, तिरे फ़िराक़ में हम को हँसी बहुत आई
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मिरा ज़ाहिर होना
मैं किसी और ज़माने के लिए हूँ शायद, इस ज़माने में है मुश्किल मिरा ज़ाहिर होना
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पुराना कैलन्डर उतार दे
चेहरे से झाड़ पिछले बरस की कुदूरतें, दीवार से पुराना कैलन्डर उतार दे
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हस्ब-ए-आरज़ू
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला, किसी को हम न मिले और हम को तू न मिला
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