मंगल से चंद्रमा तक, कम बजट में इसरो कैसे रचता है इतिहास
इसरो की अनूठी पहचान
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने कम लागत में विश्वस्तरीय मिशन पूरे कर दुनिया को अचंभित किया है. मंगलयान की पहली सफलता से लेकर चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर लैंडिंग तक, इसरो की मितव्ययिता हर कदम पर चमकती है.
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बैलगाड़ी से शुरूआत
कभी इसरो के उपग्रहों के पुर्जे बैलगाड़ियों पर लादे जाते थे! 1974 के परमाणु परीक्षण के बाद पश्चिमी तकनीक पर प्रतिबंध ने इसरो को स्वदेशी नवाचार की राह दिखाई. यह छिपा आशीर्वाद बना, जिसने आत्मनिर्भरता को जन्म दिया.
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मंगलयान की ऐतिहासिक उड़ान
2013 में, मात्र 74 मिलियन डॉलर में मंगलयान ने मंगल की कक्षा में जगह बनाई. पहली बार में यह सफलता हासिल करने वाली इसरो दुनिया की पहली अंतरिक्ष एजेंसी बनी. लागत? एक हॉलीवुड फिल्म से भी कम!
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चंद्रयान का चमत्कार
2008 में, 82 मिलियन डॉलर के चंद्रयान-1 ने चाँद पर पानी के अणुओं की खोज की. 2023 में, चंद्रयान-3 ने सैकड़ों करोड़ के बजट में चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर लैंडिंग कर वैश्विक कीर्तिमान रचा.
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किफायती रॉकेट की ताकत
इसरो के PSLV (20 मिलियन डॉलर प्रति लॉन्च) और GSLV (30 मिलियन डॉलर प्रति लॉन्च) ने लागत में क्रांति ला दी. तुलना करें: यूरोप का एरियन 5 प्रति लॉन्च 165 मिलियन डॉलर लेता है.
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कम संसाधनों में सफल
इसरो की सफलता का राज है कम संसाधनों में अधिक हासिल करना. सिमुलेशन, मॉड्यूलर डिज़ाइन, और पुर्जों का पुन: उपयोग इसरो को किफायती बनाते हैं. रसद के लिए स्थानीय परिवहन का उपयोग इसकी मिसाल है.
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निजी क्षेत्र के साथ कदम
IN-SPACe जैसे कदमों के जरिए इसरो निजी क्षेत्र के साथ सहयोग बढ़ाता है. यह प्रतिस्पर्धी माहौल लागत कम रखते हुए दक्षता को नई ऊँचाइयों तक ले जाता है.
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सही रॉकेट, सही रणनीति
डॉ. सुरेश नाइक कहते हैं, सही रॉकेट और प्रक्षेप पथ का चयन लागत बचाने की कुंजी है. कम क्षमता वाले रॉकेट और छोटी समय-सारिणी इसरो को बनाते हैं अनोखा.
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अंतरिक्ष में भारत का भविष्य
इसरो का मंत्र है: किफायत के साथ उड़ान. आत्मनिर्भरता और संसाधनशीलता के बल पर यह भारत को अंतरिक्ष की नई ऊँचाइयों तक ले जाएगा.
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