सरदार वल्लभभाई पटेल का नाम आते ही एक ऐसे नेता की छवि उभरती है जो अनुशासन साहस और राष्ट्रहित के लिए कठोर निर्णय लेने की क्षमता रखता था. उनका जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नडियाद में हुआ था. वकालत से राजनीति तक का उनका सफर आसान नहीं था लेकिन देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावना ने उन्हें जन नेता बना दिया. आज उनकी पुण्यतिथि पर उनका जीवन और योगदान देश को प्रेरणा देता है.
1947 में देश आजाद हुआ तो भारत के सामने सबसे बड़ी समस्या उसका एकीकरण था. उस समय देश की लगभग 565 रियासतें थीं जो अलग अलग शासकों के अधीन थीं. कई रियासतें भारत में शामिल होने से हिचक रही थीं. ऐसे कठिन समय में सरदार पटेल को उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की जिम्मेदारी दी गई. उन्होंने इस चुनौती को देश की एकता से जोड़कर देखा और किसी भी कीमत पर भारत को अखंड रखने का संकल्प लिया.
सरदार पटेल ने संवाद नीति और कड़े फैसलों का संतुलन बनाकर रियासतों का विलय कराया. अधिकतर रियासतें उनकी दूरदर्शिता और समझाइश से भारत में शामिल हो गईं. लेकिन जूनागढ़ और हैदराबाद जैसे मामलों में उन्होंने सेना भेजने का निर्णय लिया. इन निर्णायक कदमों ने भारत की सीमाओं को सुरक्षित किया. इन्हीं कठोर लेकिन राष्ट्रहित में लिए गए फैसलों के कारण वल्लभभाई पटेल को भारत का लौह पुरुष कहा जाने लगा.
राष्ट्रीय स्तर पर पहचान से पहले वल्लभभाई पटेल ने किसानों के नेता के रूप में अपनी छवि बनाई. वर्ष 1928 में गुजरात के बारदोली में किसानों पर कर बढ़ाया गया. किसानों में भारी असंतोष था. वल्लभभाई पटेल ने उन्हें संगठित किया और शांतिपूर्ण आंदोलन का नेतृत्व किया. उनकी रणनीति और दृढ़ता के आगे ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा और कर वृद्धि वापस लेनी पड़ी. इसी आंदोलन के बाद जनता ने उन्हें सरदार की उपाधि दी.
वल्लभभाई पटेल संविधान सभा के महत्वपूर्ण सदस्य थे. उन्होंने संविधान निर्माण के लिए योग्य और अनुभवी लोगों को साथ लाने में बड़ी भूमिका निभाई. देश की विविधता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने मजबूत संघीय ढांचे पर जोर दिया. उन्होंने डॉ भीमराव आंबेडकर को प्रारूप समिति की जिम्मेदारी लेने के लिए मनाया. इस प्रकार भारत के संविधान की नींव मजबूत बनाने में उनका योगदान अविस्मरणीय रहा.
सरदार पटेल प्रशासनिक व्यवस्था को मजबूत करने के पक्षधर थे. वे मानते थे कि किसी भी नीति की सफलता के लिए सही आंकड़े जरूरी हैं. वर्ष 1950 में उन्होंने दिल्ली में जनगणना अधीक्षकों के सम्मेलन का उद्घाटन किया. उन्होंने कहा कि जनगणना भारत की योजना और प्रशासन की दिशा तय करेगी. उनके विचारों के आधार पर 1951 में स्वतंत्र भारत की पहली राष्ट्रीय जनगणना संपन्न हुई.